रविवार, 11 सितंबर 2011

भागवत गीता 1


तरह तरह की पूजा पद्धतिया , परस्पर विरोधी संगठन, धर्म के नाम पर प्रचलित हैं , जबकि धर्म का लक्ष्य है , एक परमात्मा की शोध | कल्याण स्वरूप वो परमात्मा एक है , उसे प्राप्त करने की निश्चित क्रिया का पालन धर्म है|

जब परमात्मा एक है , उसे प्राप्त करने की क्रिया एक है तो बहुत से पंथ क्यूँ ?

धर्म के सरल स्वरूप और उसके प्राप्ति हेतु निर्धारित क्रिया का क्रमबद्ध तथा पूर्णा विवरण भागवत गीता है| विश्व के प्रत्येक महापुरुष ने जो कुछ भी साधन बताया है वो सब का सब तथा अनेक गोपनीय स्तितियों का स्पष्टीकरण अकेले गीता में है, इसलिए संपूर्ण मानव जाती के कल्याण का शास्त्र गीता है| महाभारत में संकेत है की जब कौरव और पांडव की सेनायें आमने सामने खड़ी हो गयी तो संपूर्ण निशांतर कौरव में प्रवेश कर गये और सभी देवता पांडव में, इस कथन से महर्षि व्यास ने स्पष्ट कर दिया की गीता के सभी पात्र देवता या असुर हैं तथा प्रतीकात्मक हैं | प्रत्येक मनुष्य के अंतः करण मे दैवी और आसुरी दो प्राकृतीया अनादि काल से है, दैवी शक्तियों के सहयोग से जब मनुष्य अपने आत्मस्वरूप की ओर अग्रसर होता है तो काम , क्रोध , राग , द्वेष इत्यादि आसुरी वृत्तियाँ बाधा के रूप में आक्रमण करती है , उनका पार पाना ही वास्तविक युद्ध है| 

 अर्जुन श्रेय के लिए विकल था, उसकी दृष्टि में श्रेय का उपाय था कुलधर्म, पिन्दोदक क्रिया , वर्ण संकर से बचाव , कुल क्षय से बचाने के लिए युद्ध ना करना इत्यादि | मात्र इतनी सी शंका के समाधान हेतु भगवान को उसे १८ अद्धयाय गीता समझानी  पड़ी, अंत में पूछा की क्या तेरा मोह नष्ट हुआ , अर्जुन ने स्वीकार किया की भगवन् मेरा मोह नष्ट हो गया और अब मैं वैसा ही करूँगा जैसा भगवान ने उपदेश दिया है | वस्तुतः ये केवल अर्जुन की शंका नही थी बल्कि मानव मात्र की शंका है की श्रेय क्या है उसे कैसे प्राप्त करे इसलिए मानव मात्र के लिए गीता के १८ अद्ध्यायों का नियमित पाठ नितांत आवश्यक है| इस गीता ज्ञान के बिना कोई भी मनुष्य उस ईश्वर के पथ पर नही चल सकता|

अज्ञान रूपी धृतराष्ट्र और संयम रूपी संजय| अज्ञान मन के अंतराल मे रहता है, अज्ञान से आवृत "मन" धृतराष्ट्र जन्मांध है किंतु "संयम" रूपी संजय के माध्यम से ये देखता है सुनता है , वो समझता है की परमात्मा ही सत्य है, फिर भी जब तक इससे उत्पन्न "मोह" रूपी दुर्योधन जीवित है इसकी दृष्टि सदैव कौरवो पर रहती है, विकारो पर ही रहती है|

धर्म एक क्षेत्र है , जब हृदय देश में दैवी संपत्ति का बाहुल्य होता है तो ये शरीर धर्म क्षेत्र बन जाता है और जब इसमे आसुरी संपत्ति का बाहुल्य होता है तो ये शरीर कुरुक्षेत्र बन जाता है| 

कुरू अर्थात करो, ये शब्द आदेशात्मक है | 

भगवान श्री कृष्ण कहते हैं की प्रकृति से उत्पन्न तीनो गुनो द्वारा परवश् होकर मनुष्य कर्म करता है, वो क्षण मात्र भी कर्म किए बिना नहीं रह सकता | जब तक प्रकृति और प्रकृति से उत्पन्न गुण जीवित हैं कुरू लगा रहेगा अतः जन्म मृत्यु वाला क्षेत्र, विकारो वाला क्षेत्र, कुरुक्षेत्र है और परंधर्म परमात्मा में प्रवेश दिलाने वाली पुण्यमयी प्रवित्तियों का क्षेत्र धर्मक्षेत्र है| पुरातातविद्ड़ पंजाब में, काशी-प्रयाग के मद्ध्य तथा अनेकानेक स्थलो पर कुरुक्षेत्र के शोध मे लगे है किंतु गीतIकार ने स्वयं बताया है की जिस क्षेत्र मे ये युद्ध हुआ वो कहा है " इदं शरिरम कौन्तेय क्षेत्र मिटया विथियते " अर्जुन ये शरीर ही क्षेत्र है और जो इसको जनता है इसका पार पा लेता है वो क्षेत्रग्या है|

आगे इन्होने क्षेत्र का विस्तार बताया  जिसमे दस इंद्रिया , मन , बुद्धि , अहंकार , पाँचो विकार और तीनो गुणों का वर्णन है | शरीर ही क्षेत्र है, एक अखाड़ा है, इसमे लड़ने वाली प्रवित्तिया दो है, दैवी संपन्न और आसुरी संपन्न | पांडु की संतान और धृतराष्ट्र की संतान सजातीय और विजातीय प्रवित्तिया | अनुभवी महापुरुषो के शरण जाने पर इन दोनो प्रवित्तियों में संघर्ष का सूत्रपात्र होता है, ये क्षेत्र, क्षेत्रग्या का संघर्ष है और यही वास्तविक युद्ध है | विश्वयुद्धो से इतिहास भरा पड़ा है किंतु उनमे जीतने वालो को भी शास्वत विजय नही मिलती, ये तो आपसी बदले है ! प्रकृति  से परे की सत्ता का दिगदर्शन करना और उसमे प्रवेश पाना ही वास्तविक विजय है| यही एक ऐसी विजय है जिसके पीछे हार नही है , यही मुक्ति है जिसके पीछे जन्म मृत्यु का बंधन नही है | इस प्रकार अज्ञान से आच्छादित प्रत्येक मान संयम के द्वारा जIनता है की क्षेत्र-क्षेत्रग्या के युद्ध मे क्या हुआ | अब जैसा जिसके संयम का उत्थान है वैसे वैसे उसे दृष्टि आती जाएगी |

  उस समय राजा दुर्योधन ने पांडवों की सेना को देखकर द्रोणाचर्या के पास जाकर ये वचन कहा| द्वैत के आचरण ही द्रोणाचर्या है | जब जानकारी हो जाती है की हम परमात्मा से अलग हो गये है वहाँ उसकी प्राप्ति के लिए तदब पैदा हो जाती है , तभी हम गुरु की तलाश मे निकलते है | दोनो प्रवित्तियो के बीच यही प्राथमिक गुरु है यद्यपि बाद के गुरु योगेश्वर श्री कृष्ण होगे जो योग की स्थिति वाले होंगे| राजा दुर्योधन आचार्य के पास जाता है , मोह रूपी दुर्योधन , मोह जो सभी व्याधियों का मूल है राजा है| दुर्योधन , दुरू अर्थात दूषित , योधन अर्थात वह धन | संपत्ति मोह रूपी दोष को उत्पन्न करती है ये प्रकृति की ओर खीचता है और वास्तविक जानकारी के लिए प्रेरणा भी प्रदान करता है| मोह है तभी तक पूछने का प्रश्न भी है  अतः पुण्य से प्रवाहित सजातीय प्रवित्तियों को संगठित देखकर अर्थात पांडवों की सेना देखकर मोह रूपी दुर्योधन ने गुरु द्रोण के पास जाकर ये कहा " हे आचार्या ! आपके बुद्धिमान शिष्य ध्रुपद पुत्र ध्रिस्तद्युम्न द्वारा व्यूहाकार खड़ी की गयी पांडु पुत्रो की भारी सेना को देखिए" शाश्वत अचल पद मे आस्था रखने वाला दृढ़ मान ही ध्रिस्तद्युम्न है , यही पुण्यमयी प्रवित्तियों का नायक है | साधन कठिन नही मन की दृढ़ता कठिन होनी चाहिए |

 अब देखे सेना का विस्तार !

      इस सेना में महेशवाशा ' महान इश् में वाश दिलाने वाले ' , भाव रूपी भीम , अनुराग रूपी अर्जुन के समान बहुत से शूरवीर जैसे -  सात्विकता रूपी सात्याकी ,  विराट ' सर्वत्र ईश्वरिया प्रवाह की धारणा ' महारथी राजा ध्रुपद अर्थात अचल स्थिति तथा धृशटयाकेतु - दृढ़ कर्तव्या, कॅशिराजा - काया रूपी काशी मे वो साम्राज्या है,   पुरुजित - स्थूल, सूक्ष्म शरीरो पर विजय दिलाने वाला , कुन्तीभोजाः - अर्थात सत्य व्यवहार और पराक्रमी युधामान - युद्ध के अनुरूप मन की धारणा , उत्तमौजा - शुभ की मस्ती , शुभद्रा पुत्र अभिमन्यु - जब शुभ आधार आ जाता है तो मन भय से रहित हो जाता है ऐसा शुभ आधार से उत्पन्न अभय मॅन , ध्यान रूपी द्रौपदी के पाँचो पुत्र - वत्सल्या, लावण्या, सौम्यता, स्थिरता , सहृदयता | सब के सब महारथी है |

इस प्रकार दुर्योधन ने पांडव पक्ष के पंद्रह- बीस नाम गिनाए | विजIतिया प्रवित्ती का राजा होते हुए भी मोह ही सजातीय प्रवित्तियों को समझने के लिए बIद्धया करता है |

दुर्योधन अपना पक्ष संक्षेप में कहता है - यदि कोई वाह्य युद्ध होता तो अपनी फौज बढ़ा चढ़ा कर गिनाता, विकार कम गिनाए गये,  क्योंकि उनपर विजय पाना है, वे नाशवान है| केवल पाँच - सात विकार बताए गये जिनके अंतराल में संपूर्णा बहिरमुखी प्रवित्ती विद्यमान है जैसे -  द्वैत का आचरण करने वाले द्रोण, भ्रम रूपी भीष्म -  भ्रम इन विकारो का उदगम है अंत तक जीवित रहता है इसलिए पितामह है , समूची सेना मर गयी ये जीवित था शारशेयै पर अचेत था फिर भी जीवित था| ये है भ्रम रूपी भीष्म, भ्रम अंत तक रहता है| इसी प्रकार विजतिया कर्म रूपी कर्ण तथा संग्राम विजयी कृपIचIर्या है | साधना अवस्था में साधक द्वारा कृपा का आचरण ही कृपाचार्या है | भगवान क्रिपाधान है और प्राप्ति के बाद सद का भी वही स्वरूप है किंतु साधन काल में जबतक हम अलग है परमात्मा अलग है , विजातिया प्रवित्ती जीवित है , मोह्मयि घेराव है ऐसी परस्थिति में साधक यदि कृपा का आचरण करता है तो वो नष्ट हो जाता है| गोस्वामी तुलसीदास का भी यही मत है - माया अनेक विघ्न करती है रिद्धियाँ प्रदान करती है यहाँ तक की सिद्ध बना देती है , ऐसी अवस्था वाला साधक बगल से निकल भर जाए मरणासन्न रोगी भी जी उठेगा, वो भले ठीक हो जाए पर साधक उसे अपनी देन मान बैठे तो नष्ट हो जाएगा | एक रोगी के स्थान पर हज़ारो रोगी घेर लेंगे, भजन चिंतन का क्रम अवरुद्ध हो जाएगा और उधर बहकते - बहकते प्रकृति का बाहुल्या हो जाएगा| यदि लक्ष्य दूर है और साधक कृपा करता है तो कृपा का अकेला आचरण ही समूची सेना को जीत लेगा इसलिए साधक को पूर्तिपर्यंत इससे सतर्क रहना चाहिए | इसी प्रकार आसक्ति रूपी अस्वस्थामा, विकल्प रूपी विकर्ण है ये सभी बहिरमुखी प्रवाह के नायक है|

अब कौन सी सेना किन भावों द्वारा सुरक्षित है ----

दुर्योधन कहता है " भीष्म द्वारा संरक्षित हमारी सेना सब प्रकार से अजेय है और भीम द्वारा रक्षित इन लोगो की सेना जीतने में सुगम है" 

 पर्याप्त और अपर्याप्त जैसे श्रेष्ठ शब्दो का प्रयोग दुर्योधन की आशंका को व्यक्त करता है अतः देखना है की भीष्म कौन सी सत्ता है जिसपर कौरव निर्भर करते हैं और भीम कौन सी सत्ता है जिसपर दैवी संपन्न संपूर्ण पांडव निर्भर हैं |

दुर्योधन अपनी व्यवस्था देता है- " सब मोर्चो पर अपनी अपनी जगह स्थित रहते हुए आप लोग सब के सब भीष्म की सब ओर से रक्षा करे , यदि भीष्म है तो हम अजेय हैं इसलिए आप केवल भीष्म की ही रक्षा करे"

 

कैसा योद्धा है भीष्म जो स्वयं अपनी रक्षा नही कर पा रहा है, कौरवों को उसकी रक्षा व्यवस्था करनी पड़ रही है , ये कोई वाह्या योद्धा नही भ्रम ही भीष्म है  जब तक भ्रम जीवित है तब तक विजIतिया प्रवित्तिया कौरव अजेय है | अजेय का ये अर्थ नही की जिसे जीता ही ना जा सके बल्कि अजेय का अर्थ दुर्जय है जिसे कठिनाई से जीता जा सकता हो |

"महा अजय संसार रिपु , जीती सकाई सो वीर" 

यदि भ्रम समाप्त हो जाए तो अवीद्या अस्तित्वहीन हो जाए, मोह इत्यादि जो आंशिक रूप से बचे भी है शीघ्र ही समाप्त हो जाएँगे | भीष्म की इच्छामृत्यु थी, इच्छा ही भ्रम है , इच्छा का अंत और भ्रम का मिटना एक ही बात है| इसी को संत कवीर ने सरलता से कहा -

इच्छा काया इच्छा माया , इच्छा जाग उपजाया |

कह कवीर जे इच्छा विवर्जित , ता का पार ना पाया|

आरंभ मे इच्छाए अनंत होती है और अंततोगत्वा पर्माप्ति प्राप्ति की इच्छा शेष रहती है जब ये इच्छा भी पूरी हो जाती है तब इच्छा भी मिट जाती है |  यदि उससे भी बड़ी कोई वस्तु होती तो आप उसकी इच्छा अवस्य करते, जब उसके आगे कोई वास्तु है ही नही तो इच्छा किसकी होगी और इच्छा के मिटते ही भ्रम का सर्वथा अंत हो जाता है यही भीष्म की इच्छा मृत्यु है|

भाव रूपी भीम " भावे विद्यते देवह" भाव में वो क्षमता है की अविदित परमात्मा भी वीदित हो जाता है | श्री कृष्ण ने इसे श्रद्धा कह कर संबोधित किया है| भाव मे वो क्षमता है की भगवान को भी वश में कर लेता है| भाव से ही संपूर्ण पुण्यमयी

प्रवित्ती का विकास है , ये पुण्य का संरक्षक है , है तो इतना बलवान की परम देव परमात्मा को संभव बनता है किंतु इतना कोमल भी है की आज भाव है तो कल अभाव मे बदलते देरी नही लगती. ईष्ट मे लेश मात्र भी त्रुटि होने पर भाव डगमगा जाता है, पुण्यमयी प्रवित्ती विचलित हो उठती है , ईष्ट से संबंध टूट जाता है इसलिए भीम द्वारा रक्षित इन लोगो की सेना जीतने में सुगम है |

                                                     भागवत गीता 2

3 टिप्‍पणियां:

  1. भाव एक मनःस्थिति है जिसे कार्यरूप देना भी ज़रूरी होता है क्योंकि अक्सर,सोचते तो हम सब अच्छा हैं,पर ऐन वक्त पर कमीनेपन से बाज़ नहीं आते।

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  2. बहुत अछा आलेख है | बधाई स्वीकारें |

    मेरे ब्लॉग पर आने और रामायण १२ पर अपनी टिप्पणी देने का धन्यवाद | गीता पर एक सीरीज लिख रही हूँ, अभी श्लोक २.५ पर हूँ | समय मिलने पर देखिएगा, और चर्चा में हिस्सा लीजियेगा |

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  3. aaplogon ka yahaan aakar tippadi dene ke liye dhanyawaad ............

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